Karz - Hindi Poetry
कुछ कर्ज है हम पर आज भी
जो हम चूका नहीं पाये
सम्मान क्या देंगे हम उनकी शहादत को
जिनके सजदे में सिर तक झुका नहीं पाये
उनको सपनों में जंजीर दिखती थी
मेरी माँ भारती की पीर दिखती थी
लड़ने को दुश्मनो से शमशीर दिखती थी
जिंदगी उन्हें कभी दिखी ही नहीं
उन्हें वतन पे मरने में अनोखी जीत दिखती थी
हम उनके जैसे कैसे बनेंगे
हम तो पदचिन्हों पर चल भी नहीं पाये
वो वतन को दिलों जान दे गए
हम वतन....... "मेरा वतन" कह भी नहीं पाये
चोटिल थे पैर तो डगमगाकर चले वो
त्योरियों को अपनी तनतना कर चले वो
होश दुश्मनों के हरदम उड़ाकर चले वो
उनकी बराबरी हमसे होगी भी कैसे
फाँसियों के फंदों पे मुस्कराकर चढ़े वो
चढ़कर फंसियों पर भी वो "इंकलाब बोले"
हम आजाद होकर "जय हिन्द" ढंग से बोल नहीं पाये
वो लोग कुछ और थे जो मिट गए वतन पर
और हम है जो वतन के हो ही नहीं पाये
कवि - महेश "हठकर्मी"
कर्ज ( Karz ) |Hindi Poetry हमारे शहीदों के बलिदान की छोटी सी गाथा के समान हैं। इसमे उनके द्वारा किये गये कुछ बलिदानों का विवरण हैं। इस कविता को पढ़ने के लिए धन्यवाद
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