हे अन्नदाता अन्न तेरा खाके हम बड़े हुए
हम बड़े आगे को लेकिन तुम हो अब भी वही खड़े
मेहनत से उपजा अन्न तेरा ,देश को जीवन नया दे जाता है
पर मूल्य उस ही अन्न का ,घर तेरे खुशियां नही ला पाता है
कभी कभी तो कुदरत भी तुझ पर कहर बनकर टूटती
सूखा कभी ,कभी बाढ़ आके सपनों को तेरे तोड़ती
पर तू है जिद्दी मेहनती कभी मानता ना हार है
हो बाढ़ , सूखा या अकाल उपजा के रहता अनाज है
तू बंजर भूमि पर जब मेहनत से हल चलाता है
जहाँ उपजा न करता झाड़ था , आज वहां अनाज लहराता है
उपजाये तेरे इसी अन्न से फल फूलता ये समाज है
फिर भी न सर पे पगड़ी तेरे , पाँव में न खड़ाव है
कहने को भले ही तुझपे दुनिया का लाखों का कर्ज उधार है
पर वास्तविकता में , हे अन्नदाता कर्ज तेरा हम सभी पर उधार हैं
आधार हैं तू हर देश का , तू है तो ये संसार हैं
कवि - महेश "हठधर्मी"
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